शनिवार, 23 सितंबर 2017

विशेष पिछड़ा वर्ग के नाम एक अपील: नन्दलाल गुर्जर

मांडलगढ़ विधानसभा उपचुनाव में एसबीसी को मिले टिकट, आजादी के 70 साल बाद भी है मूलभूत सुविधाओं से वंचित वरना कुठाराघात सहन नहीं किया जायेगा
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(नन्दलाल गुर्जर) मांडलगढ़ विधायक कीर्तिकुमारी जी के निधन के बाद मांडलगढ़ विधानसभा उपचुनाव होंगे| उपचुनाव में भाजपा और कांग्रेस में उम्मीदवार अपनी अपनी दावेदारी और दमखम दिखा रहे है| भाजपा से सम्भावित प्रत्याशी हर्षिता कंवर, भीलवाड़ा UIT चैयरमैन गोपाल खण्डेलवाल, भीलवाड़ा जिला प्रमुख शक्ति सिंह हाड़ा, पंजाब के राज्यपाल वीपी सिंह के पुत्र अविजित सिंह और कांग्रेस से 2013 में मोदी लहर में पराजय रहे विवेक धाकड़, पूर्व विधायक प्रदीप कुमार सिंह, पूर्व प्रधान गोपाल मालवीय, कांग्रेस जिलाध्यक्ष अनिल डांगी, पूर्व मुख्यमंत्री शिवचरण माथुर की पुत्री वन्दना माथुर एवं पौत्र राहुल माथुर आदि| मांडलगढ़ विधानसभा क्षेत्र में धाकड़ समाज के 35000 मतदाता है और गुर्जर समाज के 30000 मतदाता है जो उपचुनाव जीत के लिए निर्णायक भूमिका में है| अगर आकड़ों पर गौर करे तो मांडलगढ़ विधानसभा क्षेत्र में विशेष पिछड़ा वर्ग का वोटबैंक सबसे ज्यादा और मजबूत है| गाड़िया लुहार समाज के 1000 मतदाता, रेबारी समाज के 4500 मतदाता, बंजारा समाज के 10000 मतदाता, गायरी समाज के 5000 मतदाता, गुर्जर समाज के 30000 मतदाता है| एसबीसी के 50000 से ज्यादा वोट है| अतः दोनों पार्टियों भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस पार्टी  एसबीसी उम्मीदवार को अपना प्रत्याशी घोषित करती है तो निश्चित रूप से यह उपचुनाव संजीवनी साबित होगा| ताजुब की बात यह है कि आजादी के 70 साल बीत जाने के बाद भी विशेष पिछड़ा वर्ग की विधानसभा क्षेत्र में अनदेखी की गई और 70 साल तक ये राजनीतिक दल विशेष पिछड़ा वर्ग का वोटबैंक के रूप में उपयोग करते रहे| आज भी मूलभूत सुविधाओं से विशेष पिछड़ा वर्ग वंचित है| यह समय है एकता का और एकजुट होकर अधिकारो के प्रति संघर्ष करने का| विशेष पिछड़ा वर्ग अपने हक और अधिकारों के लिए एकजूट है|
नन्दलाल गुर्जर
मो. 9166904121

मंगलवार, 12 सितंबर 2017

गुर्जर इतिहास चेतना के सूत्र : डॉ. सुशील भाटी

गुर्जर इतिहास चेतना के सूत्र

डॉ सुशील भाटी

प्राचीन गुर्जर इतिहास को समझने के लिए तीन बिन्दु हैं - कुषाण साम्राज्य (50- 250ई.), हूण साम्राज्य (490-542 ई.) तथा गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य (725-1018 ई.)| प्राचीन भारत में गुर्जरों के पूर्वजों द्वारा स्थापित किये गए इन साम्राज्यों के क्रमश सम्राट कनिष्क (78-101 ई.), सम्राट मिहिरकुल (502-542 ई.) और सम्राट मिहिर भोज (836-886 ई.) प्रतिनिधि आइकोन हैं| 

गुर्जर समाज में इतिहास चेतना उत्पन्न करने हेतु “सूर्य उपासक सम्राट कनिष्क” की जयंती ‘सूर्य षष्ठी’ छठ पूजा के दिन वर्षो से मनाई जाती रही हैं| भारत में सूर्य पूजा का प्रचलन अति प्राचीन काल से ही है, परन्तु ईसा की प्रथम शताब्दी में, कुषाण कबीलों ने इसे विशेष रूप से लोकप्रिय बनाया। कुषाण मुख्य रूप से मिहिर ‘सूर्य’ के उपासक थे। सूर्य का एक पर्यायवाची ‘मिहिर’ है, जिसका अर्थ है, वह जो धरती को जल से सींचता है, समुद्रों से आर्द्रता खींचकर बादल बनाता है। सम्राट कनिष्क की मिहिर ‘सूर्य’ के प्रति आस्था को प्रकट करने वाले अनेक पुरातात्विक प्रमाण हैं| कुषाण सम्राट कनिष्क ने अपने सिक्कों पर मीरों ‘मिहिर’ देवता  का नाम और चित्र अंकित कराया था|  सम्राट कनिष्क के सिक्के में मिहिर ‘सूर्य’ बायीं और खड़े हैं। भारत में सिक्कों पर सूर्य का अंकन किसी शासक द्वारा पहली बार हुआ था। पेशावर के पास ‘शाह जी की ढेरी’ नामक स्थान पर एक बक्सा प्राप्त हुआ इस पर कनिष्क के साथ सूर्य एवं चन्द्र के चित्र का अंकन हुआ है। मथुरा के सग्रहांलय में लाल पत्थर की अनेक सूर्य प्रतिमांए रखी है, जो कुषाण काल की है। इनमें भगवान सूर्य को चार घोड़ों के रथ में बैठे दिखाया गया है। वे कुर्सी पर बैठने की मुद्रा में पैर लटकाये हुये है। उनका शरीर ‘औदिच्यवेश’ अर्थात् पगड़ी,  लम्बा कोट और सलवार से ढका है और वे ऊंचे जूते पहने हैं। उनकी वेशभूषा बहुत कुछ, मथुरा से ही प्राप्त  कनिष्क की सिरविहीन प्रतिमा जैसी है। भारत में ये सूर्य की सबसे प्राचीन मूर्तियां है| भारत में पहले सूर्य मन्दिर की स्थापना मुल्तान में हुई थी, जिसे कुषाणों ने बसाया था। इतिहासकार डी. आर. भण्डारकर के अनुसार कनिष्क के शासन काल  में ही सूर्य एवं अग्नि के पुरोहित मग ब्राह्मणों ने  भारत में प्रवेश किया। उसके बाद ही उन्होंने कासाप्पुर ‘मुल्तान’ में पहली सूर्य प्रतिमा की स्थापना की। ए. एम. टी. जैक्सन के अनुसार मारवाड़ क्षेत्र स्थित भीनमाल में सूर्य देवता के प्रसिद्ध जगस्वामी मन्दिर का निर्माण काश्मीर के राजा कनक ‘सम्राट कनिष्क’ ने कराया था। सातवी शताब्दी में यही भीनमाल आधुनिक राजस्थान में विस्तृत ‘गुर्जर देश’ की राजधानी बना।  कनिष्क मिहिर और अतर ‘अग्नि’ के अतरिक्त कार्तिकेय, शिव तथा बुद्ध आदि भारतीय देवताओ का उपासक था| कनिष्क ने भारत में कार्तिकेय की पूजा को विशेष बढ़ावा दिया। कनिष्क के बेटे हुविष्क का चित्रण उसके सिक्को पर महासेन 'कार्तिकेय' के रूप में किया गया हैं|आधुनिक पंचाग में सूर्य षष्ठी एवं कार्तिकेय जयन्ती एक ही दिन पड़ती है| कोई चीज है प्रकृति में जिसने इन्हें एक साथ जोड़ा है-वह है सम्राट कनिष्क की आस्था। ‘सूर्य षष्ठी’ के दिन सूर्य उपासक सम्राट कनिष्क को भी याद किया जाना चाहिये और उन्हें भी श्रद्धांजलि दी जानी चाहिये।  

इसी क्रम में“शिव भक्त सम्राट मिहिरकुल हूण” की जयंती ‘सावन की शिव रात्रि’ पर मनाई जाती हैं| मिहिकुल हूण एक कट्टर शैव था|  मिहिरकुल को ग्वालियर अभिलेख में भी शिव भक्त कहा गया हैं| मिहिरकुल के सिक्कों पर जयतु वृष लिखा हैं जिसका अर्थ हैं- जय नंदी| वृष शिव कि सवारी हैं जिसका नाम नंदी हैं| उसने अपने शासन काल में अनेक शिव मंदिर बनवाये| मंदसोर अभिलेख के अनुसार यशोधर्मन से युद्ध होने से पूर्व उसने भगवान स्थाणु ‘शिव’ के अलावा किसी अन्य के सामने अपना सर नहीं झुकाया था| कल्हण कृत राजतरंगिणी के अनुसार उसने कश्मीर में मिहिरपुर नामक  नगर बसाया तथा श्रीनगर के पास मिहिरेशवर नामक भव्य शिव मंदिर बनवाया था| उसने गांधार इलाके में ब्राह्मणों को 1000 ग्राम दान में दिए थे| कल्हण मिहिरकुल हूण को ब्राह्मणों के समर्थक शिव भक्त के रूप में प्रस्तुत करता हैं| मिहिरकुल ही नहीं वरन सभी हूण शिव भक्त थे| हनोल ,जौनसार – बावर, उत्तराखंड में स्थित महासु देवता “महादेव” का मंदिर हूण स्थापत्य शैली का शानदार नमूना हैं, कहा जाता हैं कि इसे हूण भट ने बनवाया था| यहाँ यह उल्लेखनीय हैं कि भट का अर्थ योद्धा होता हैं | तोरमाण और मिहिरकुल के ‘अलखान हूण परिवार ’ के पतन के बाद हूणों के इतिहास के प्रमाण राजस्थान के हाडौती और मेवाड़ के पहाड़ी इलाको से प्राप्त होते हैं| पूर्व मध्य काल में कोटा-बूंदी का क्षेत्र हूण प्रदेश कहलाता था| ऐतिहासिक हूणों के प्रतिनिधि के तौर पर वर्तमान में इस क्षेत्र में हूण गुर्जर काफी संख्या में पाए जाते हैं| बूंदी इलाके में रामेश्वर महादेव,  भीमलत और झर महादेव हूणों के बनवाये प्रसिद्ध शिव मंदिर हैं|  बिजोलिया, चित्तोरगढ़ के समीप स्थित मैनाल कभी हूण राजा अन्गत्सी की राजधानी थी, जहा हूणों ने तिलस्वा महादेव का मंदिर बनवाया था| चंबल के निकट स्थित भैंसोरगढ़ से तीन मील की दूरी पर बाडोली का प्रसिद्ध प्राचीन शिव मंदिर हैं| मंदिर के आगे एक मंडप हैं जिसे लोग ‘हूण की चौरी’ कहते हैं| कर्नल टाड़ के अनुसार बडोली में स्थित सुप्रसिद्ध  शिव मंदिर के हूणराज ने बनवाया था|

भादो के शुक्ल पक्ष की तीज को वराह जयंती होती हैं| गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज की उपाधि ‘आदि वराह’ थी, जोकि उसके सिक्को पर उत्कीर्ण थी|| अतः इस दिन मिहिर भोज को भी याद किया जाता हैं| ‘आदि वराह’ आदित्य वराह का संक्षिप्त रूप हैं| आदित्य सूर्य का पर्यायवाची हैं| इस प्रकार आदि वराह एक सूर्य से संबंधित देवता हैं| वराह और सूर्य के संयुक्तता  कुछ स्थानो और व्यक्तियों के नामो में भी दिखाई देती हैं, जैसे- उत्तर प्रदेश के बहराइच स्थान का नाम वराह और आदित्य शब्दों से वराह+आदित्य= वराहदिच्च/ वराहइच्/ बहराइच होकर बना हैं|कश्मीर में बारामूला नगर हैं, जोकि प्राचीन काल के वराह+मूल = वराहमूल का अपभ्रंश हैं| ‘मूल’ सूर्य का पर्याय्वाची हैं| भारतीय नक्षत्र विज्ञानी वराहमिहिर (505-587 ई.) के नाम में तो दोनों शब्द एक दम साफ़ तौर पर देखे जा सकते हैं| मिहिर का अर्थ भी सूर्य हैं| वराह को विष्णु का अवतार माना जाता हैं| वेदों में भगवान विष्णु भी सौर देवता हैं| विष्णु भगवान को सूर्य नारायण भी कहते हैं| ‘मिहिर’ और ‘आदि वराह’ दोनों ही गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज की उपाधि हैं| अतः "मिहिर भोज जयंती" को “मिहिरोत्सव” के रूप में भी मना सकते हैं|

मिहिर शब्द का गुर्जरों के इतिहास के साथ गहरा सम्बंध हैं| हालाकि गुर्जर चौधरी, पधान ‘प्रधान’, आदि उपाधि धारण करते हैं, किन्तु ‘मिहिर’ गुर्जरों की विशेष उपाधि हैं| राजस्थान के अजमेर क्षेत्र और पंजाब में गुर्जर मिहिर उपाधि धारण करते हैं| मिहिर ‘सूर्य’ को कहते हैं| भारत में सर्व प्रथम सम्राट कनिष्क कोशानो ने ‘मिहिर’ देवता का चित्र और नाम अपने सिक्को पर उत्कीर्ण करवाया था| कनिष्क ‘मिहिर’ सूर्य का उपासक था| उपाधि के रूप में सम्राट मिहिर कुल हूण ने इसे धारण किया था| मिहिर कुल का वास्तविक नाम गुल था तथा मिहिर उसकी उपाधि थी| मिहिर गुल को ही मिहिर कुल लिखा गया हैं| कैम्पबैल आदि इतिहासकारों के अनुसार हूणों को मिहिर भी कहते थे| गुर्जर प्रतिहार सम्राट भोज महान ने भी मिहिर कुल की भाति मिहिर उपाधि धारण की थी| इसीलिए इतिहासकार इन्हें मिहिर भोज भी कहते हैं| संभवतः “गुर्जर प्रतिहारो की हूण विरासत” रही हैं| मिहिर उपाधि की परंपरा गुर्जरों की ऐतिहासिक विरासत को सजोये और संरक्षित रखे हुए हैं|

मशहूर पुरात्वेत्ता एलेग्जेंडर कनिंघम इतिहास प्रसिद्ध कुषाणों की पहचान आधुनिक गुर्जरों से की हैं| उनके अनुसार गुर्जरों का कसाना गोत्र कुषाणों का वर्तमान प्रतिनिधि हैं| उसकी बात का महत्व इस बात से और बढ़ जाता है कि गुर्जरों का कसाना गोत्र क्षेत्र विस्तार एवं संख्याबल की दृष्टि से सबसे बड़ा है। कसाना गौत्र अफगानिस्तान से महाराष्ट्र तक फैला है और भारत में केवल गुर्जर जाति में मिलता है। ऐतिहासिक तौर पर कनिष्क द्वारा स्थापित कुषाण साम्राज्य गुर्जर समुदाय का प्रतिनिधित्व करता हैं, क्योकि यह मध्य और दक्षिण एशिया के उन सभी देशो में फैला हुआ था, ज़हाँ आज गुर्जर निवास करते हैं| कुषाण साम्राज्य के अतरिक्त गुर्जरों से सम्बंधित कोई अन्य साम्राज्य नहीं हैं, जोकि पूरे दक्षिणी एशिया में फैले गुर्जर समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के लिए अधिक उपयुक्त हो| यहाँ तक की मिहिर भोज द्वारा स्थापित प्रतिहार साम्राज्य केवल उत्तर भारत तक सीमित था, तथा पश्चिमिओत्तर में करनाल इसकी बाहरी सीमा थी| कनिष्क के साम्राज्य का एक अंतराष्ट्रीय महत्व हैं, दुनिया भर के इतिहासकार इसमें अकादमिक रूचि रखते हैं| सम्राट कनिष्क कोशानो 78 ई. में राजसिंघासन पर बैठा| अपने राज्य रोहण को यादगार बनाने के लिए उसने इस अवसर पर एक नवीन संवत चलाया, जिसे शक संवत कहते हैं| शक संवत भारत का राष्ट्रीय संवत हैं| “भारतीय राष्ट्रीय संवत- शक संवत” 22 मार्च को शुरू होता हैं| इस प्रकार 22 मार्च सम्राट कनिष्क के राज्य रोहण की वर्षगाठ हैं| दक्षिणी एशिया विशेष रूप से गुर्जरों के प्राचीन इतिहास में यह एक मात्र तिथि हैं जिसे अंतराष्ट्रीय रूप से प्रचलित जूलियन कलेंडर के अनुसार निश्चित किया जा सकता हैं| सम्राट कनिष्क के राज्य रोहण की वर्षगाठ के अवसर पर वर्ष 2013 से मनाया जाने वाला  “22 मार्च- इंटरनेशनल गुर्जर डे” आज देश-विदेश में बसे गुर्जरो के बीच एकता और भाईचारे से परिपूर्ण उत्सव का रूप ले चुका हैं|

सम्राट कनिष्क के सिक्के पर उत्कीर्ण पाया जाने वाला ‘राजसी चिन्ह’ जिसे ‘कनिष्क का तमगा’ भी कहते हैं, आज गुर्जर समुदाय की पहचान बन कर उनके वाहनों, स्मृति चिन्हों, घरो और उनके कपड़ो तक पर अपना स्थान ले चुका हैं| सम्राट कनिष्क का राजसी चिन्ह गुर्जर कौम की एकता, उसके गौरवशाली इतिहास और विरासत के प्रतीक के रूप में उभरा हैं| कनिष्क के तमगे में ऊपर की तरफ चार नुकीले काटे के आकार की रेखाए हैं तथा नीचे एक खुला हुआ गोला हैं| कुषाण सम्राट शिव के उपासक थे| कनिष्क के अनेक सिक्को पर शिव मृगछाल, त्रिशूल, डमरू और कमण्डल के साथ उत्कीर्ण हैं|  कनिष्क का राजसी निशान “शिव के त्रिशूल” और उनकी की सवारी “नंदी बैल के पैर के निशान” का समन्वित रूप हैं| सबसे पहले इस राज चिन्ह को कनिष्क के पिता सम्राट विम कड्फिस ने अपने सिक्को पर उत्कीर्ण कराया था| विम कड्फिस शिव का परम भक्त था तथा उसने माहेश्वर की उपाधि धारण की थी| उसने अपने सिक्को पर शिव और नंदी दोनों को उत्कीर्ण कराया था| यह राजसी चिन्ह कुषाण राजवंश और राजा दोनों का प्रतीक था तथा राजकार्य में मोहर के रूप में प्रयोग किया जाता था|

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