सोमवार, 31 जुलाई 2017

आखिर कौन सा नेता, पार्टी या संगठन दिलाएगी वंचितों को न्याय और कब?

आखिर कौन सा नेता , पार्टी या संगठन  दिलाएगी वंचितों को न्याय और कब ??

1 . कौन सा नेता, पार्टी या संगठन  कराएगा ओ.बी.सी. का  विभाजन ?

2 . कौन सा नेता, पार्टी भिजवाएगी एथनोग्राफिक रिपोर्ट केंद्र सरकार को गूजर, बंजारा व गाड़िया लोहार को अनुसूचित जनजाति में शामिल करवाने के लिए  ?

3 . S .B .C . का केस सुप्रीम कोर्ट में है .. क्या गुर्जर समाज मजबूत पैरवी के लिए हरीश साल्वे या जेठमलानी जैसा नामी वकील खड़ा करेगा या सरकार भरोसे रहेगा ? क्योकि सर्वोच्च न्यायलय का निर्णय अंतिम होगा |

नोट: ऑनलाइन जर्नल में डा. सुशील भाटी द्वारा लिखित एथनोग्राफिक रिपोर्ट '' गूजर ए बैकवर्ड ट्राइब'' का संदर्भ लेने के लिए लिंक निम्न है :

www.google.co.in/?gfe_rd=cr&ei=Yf-0WO7INqL98weL2qSADQ&gws_rd=ssl#q=gujar+a+backward+tribe+journal+sushil+भाटी

यदि राजस्थान सरकार को इस रिपोर्ट को तैयार करने व केंद्र को शीघ्र भेजने में कोई सहायता चाहिए तो हम सहर्ष तैयार है |

इस पोस्ट को समाज में ज्यादा से ज्यादा (व्हाटस ऍप एवम फेसबुक आदि ) पर शेयर करे जिससे अधिक से अधिक व्यक्तियों महत्वपूर्ण जानकारी मिल सके और इस विषय में अग्रिम कार्यवाही संभव हो  सके |

सादर,
मोहित तंवर

पढ़िये गुर्जर किसान आंदोलन पर मोहित तोमर की रिपोर्ट

यह गूजर नहीं किसान आंदोलन है :: भारतीय लोकतंत्र का यह अजीब चेहरा है. देश के किसानों को जब भी कोई बात सरकार तक पहुंचानी होती है, उन्हें आंदोलन करना पड़ता है. वहीं देश के बड़े-बड़े उद्योगपति सीधे मंत्रालय जाकर नियम-क़ानून बदल कर करोड़ों का फायदा उठा लेते हैं. लोकतंत्र से मिलने वाले अवसर और फायदे से भारत की बहुसंख्यक आबादी बहुमत से लगातार दूर होती जा रही है. भारत किसानों का देश है. वह ग़रीब है. सरकार की योजनाओं एवं नीतियों से फायदा मिलना तो दूर, उल्टे नुकसान हो रहा है. किसी भी लोकतंत्र में आंदोलन तब होता है, जब उसकी संस्थाओं के ज़रिए लोगों के बुनियादी सवालों, उनकी समस्याओं का हल निकलना बंद हो जाता है. जब समस्याओं का हल सरकारी तंत्र न कर सके या फिर सरकारी तंत्र की वजह से समस्याएं पैदा होती हों, तब आंदोलन होता है. किसी भी आंदोलन में जनता का समर्थन तब मिलता है, जब पेट में पीड़ा होती है. वैसे भारत के लोग बड़े ही संतोषी हैं. इतनी महंगाई के बावजूद आंदोलन नहीं करते हैं. फिर अगर गूजर आंदोलन कर रहे हैं तो ज़रूर कोई वजह होगी.
गूजर आंदोलन कर रहे हैं. क्या यह आंदोलन आकस्मिक है. ये किसान सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग क्यों कर रहे हैं. गूजरों को गांव में रहने वाले राजपूतों का समर्थन क्यों मिल रहा है. गांव में रहने वाले उच्च जाति के लोग भी सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग को लेकर क्यों आवाज़ उठाने लगे हैं. क्या वजह है कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग शहर के व्यापारी नहीं करते. कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार को अपनी नीतियों और प्राथमिकताओं को पूरी तरह से बदलने का व़क्त आ गया है. विकास के मायने को नया रूप देने का व़क्त आ गया है.
गूजरों का आंदोलन कोई आकस्मिक आंदोलन नहीं है. वे किसी हत्याकांड के विरोध में आंदोलन नहीं कर रहे हैं. गूजर कई सालों से रोज़ी-रोटी के सवाल को लेकर आंदोलन कर रहे हैं. यह आंदोलन दिल्ली से सटे इलाकों और राजस्थान में फैला है. गूजर सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग कर रहे हैं. उनकी मांग यह है कि उन्हें अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिले और सरकारी नौकरियों में आरक्षण. अब सवाल यह है कि गूजर अपने पारंपरिक व्यवसाय को छोड़कर सरकारी नौकरियां करना क्यों चाहते हैं. सरकार को लगता है कि अगर गूजरों की मांग मान ली गई तो देश की दूसरी जातियां भी आरक्षण के लिए आंदोलन शुरू कर सकती हैं. यही वजह है कि सरकार इसे राजनीतिक रंग देने में लगी है. गूजरों के आंदोलन को राजनीति के चश्मे से देखना ग़लत है.
गूजर मुख्यत: किसान हैं. उनका जीवन पशुपालन पर निर्भर है. पशुपालन और दूध ही उनकी आय का मुख्य ज़रिया है. सदियों से ये लोग गाय, बकरी और भेड़ पालते रहे, उनका दूध बेचते रहे हैं, लेकिन धीरे-धीरे पशुपालन का भैंसीकरण हो गया. मतलब यह कि भैंस का दूध बाज़ार में छा गया. 1950 से पहले हमारे देश में लोग भैंस नहीं पालते थे. 1950 के बाद से एडीडीपी (एग्रीकल्चर एंड डेयरी डेवलपमेंट प्रोग्राम) की मदद से मिल्क को-ऑपरेटिव का आंदोलन शुरू हुआ. उसी समय दूध की गुणवत्ता मापने का जो मापदंड बना, उसने पशुपालन और दूध के बाज़ार की पूरी दिशा बदल दी. दूध की गुणवत्ता को फैट परसेंटेज से जोड़ दिया गया. मतलब यह कि जिस दूध में जितना ज्यादा फैट, उतना ही बेहतर दूध. मज़े की बात यह है कि फैट को गुणवत्ता का मापदंड इसलिए बनाया गया, क्योंकि इसे लैक्टोमीटर से आसानी से मापा जा सकता है. हमारे अधिकारियों को दूध की गुणवत्ता मापने का सबसे आसान तरीका यही लगा. पांचवें दशक के बाद से जब यह मिल्क को-ऑपरेटिव आंदोलन चला तो उसी के साथ दूध का सबसे ज़्यादा इस्तेमाल चाय में होने लगा. चाय के अंदर अगर दूध ज़्यादा गहरा हो तो चाय अच्छी मानी जाती है. इन दोनों वजहों से गाय के दूध से ज़्यादा भैंस के दूध की खपत होने लगी. बाज़ार में भैंस के दूध की मांग बढ़ी. देश में पशुपालन के मायने बदल गए. पशुपालन का अर्थ स़िर्फ भैंस पालना रह गया. इससे बहुत बड़ा बदलाव आया. गाय की तरह भैंस खेतों में नहीं चरती. इससे उसका काम नहीं चलता. गांवों में गाय को खरीद कर चारा देने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी. इस वजह से दूध के लिए गूजरों को अब खेत से लाए गए चारे और बाज़ार से खरीदे गए चारे की ज़रूरत पड़ने लगी. अब पिछले 25 सालों में भैंसों के खाने के सामानों (चारा और अन्य उत्पाद) पर नज़र डालें तो भैंसों पर किए गए खर्च और दूध की कीमत में काफी अंतर था. कुछ सालों तक यह एक और तीन के अनुपात में रहा. मतलब भैंसों के खाने पर अगर कोई एक रुपये खर्च करता तो उसे तीन रुपये का दूध मिलता था. गूजरों को फायदा होता था, लेकिन पिछले 10 सालों में तस्वीर बदल गई. भैंस के चारे की कीमत बढ़ गई. इसकी कई वजहें हैं. खेती का तरीका बदला और फसलों में भी बदलाव आया. चारे का उत्पादन कम होता गया. साथ ही पानी की किल्लत शुरू हो गई. वहीं बाज़ार में फैट की इतनी मांग बढ़ती गई कि किसानों ने भैंसों को फूड कांस्नट्रेट (ऐसा खाना जिससे ज्यादा फैट का निर्माण होता है) खिलाना शुरू कर दिया. फूड कांस्नट्रेट को खली से बनाया जाता है. जब सरसों या किसी बीज से तेल निकाला जाता है तो तेल निकालने के बाद जो बच जाता है, उसे खली कहते हैं. जब तेल महंगे हुए तो खली की कीमत बढ़ गई. इस तरह भैसों को जो खिलाया जाता था, वह कई गुना महंगा हो गया, लेकिन सरकार ने शहरी उपभोक्ताओं की वजह से दूध की कीमत नहीं बढ़ने दी. दूसरी परेशानी यह हुई कि बाज़ार में सिंथेटिक (नकली) दूध का अंबार लग गया, जिसकी वजह से बाज़ार के अंदर डिमांड एंड सप्लाई के आधार पर दूध की जो कीमत होनी चाहिए, वह हुई नहीं. साथ ही घी का कारोबार भी गूजरों के लिए मुसीबत हो गया. नकली घी का कारोबार असली घी के कारोबार से कई गुना ज़्यादा है. इसने भी दूध की कीमत नहीं बढ़ने दी. यही वजह है कि पिछले दस सालों से गूजरों को नुकसान होने लगा. आमदनी कम होने की वजह से गूजरों की चिंता बढ़ने लगी. उन्हें अब लगने लगा है कि अपने पारंपरिक व्यवसाय की वजह से वे ग़रीब होते चले जा रहे हैं. अब इससे उनका गुज़ारा नहीं होने वाला है.
गूजर आंदोलन को अगर स़िर्फ जातीय व आरक्षण के चश्मे से देखा गया तो भयंकर भूल हो जाएगी. आज गूजर आंदोलन कर रहे हैं, कल दूसरे किसान आंदोलन करेंगे. आज वे रेल और सड़क जाम कर रहे हैं, कल हथियार भी उठा सकते हैं.
ऐसे मौके पर जब कोई राजनीतिक दल या नेता अच्छे भविष्य के सपने दिखाएगा तो ग़रीबी से जूझ रहे किसानों का समर्थन मिलना लाज़िमी है. अब गूजरों को लग रहा है कि उनके अपने व्यवसाय में फायदा नहीं है और नेता उन्हें नौकरियों में आरक्षण का लालच भी दे रहे हैं. ऐसे में गूजर समुदाय को लग रहा है कि परिवार के किसी एक व्यक्ति को सरकारी नौकरी मिल गई तो उनकी समस्या हल हो जाएगी. गूजरों ने जब आरक्षण की मांग शुरू की तो उनके सामने एक उदाहरण था, मीणा जाति का. मीणाओं को अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिलने के कारण ही आज सिविल सेवा में उनकी संख्या सबसे अधिक है. गूजर मीणाओं को अपना सबसे बड़ा प्रतियोगी मानते हैं और उन्हें लगता है कि मीणाओं ने सरकारी नौकरियों की वजह से सरकारी संसाधनों पर एकाधिकार स्थापित कर लिया है. गूजरों को लगता है कि आरक्षण मिलने के बाद उनकी भी सामाजिक हैसियत मीणाओं जैसी हो जाएगी. गूजर आंदोलन को जातीय पहचान की लड़ाई समझना ग़लत होगा, क्योंकि इसकी जड़ में आर्थिक और सामाजिक विषमताएं हैं. हां, यह बात ज़रूर है कि विषमताओं के खिला़फ लड़ने और लोगों को संगठित करने के लिए किसी पहचान की ज़रूरत होती है, जो आंदोलन की धुरी बने. इस आंदोलन में गूजर जातिसूचक न होकर किसानों की समस्याओं और सरकारी नीतियों की विफलताओं के खिला़फ मुहिम का नाम है. किसानों के प्रति सरकार की जो अनदेखी है, वह कहीं गूजर, कहीं यादव या कहीं कुर्मी के नाम से आंदोलन शुरू कर सकती है.
70 के दशक में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में महेंद्र सिंह टिकैत ने एक किसान आंदोलन खड़ा किया था. उन्हें किसानों का ज़बरदस्त समर्थन मिला. उस समय भी गन्ना, गेहूं, जौ और चने की खेती करने वाले किसानों की हालत वैसी ही थी, जैसी आज गूजरों की है. गन्ना, गेहूं, जौ और चना पैदा करने की लागत ज़्यादा हो गई और सरकार ने इन फसलों की कीमत नियंत्रित कर रखी थी. किसानों को खेती से नुक़सान हो रहा था. बाद में स्थिति में बदलाव आया तो यह किसान आंदोलन शांत हुआ. महेंद्र सिंह टिकैत और गूजर आंदोलन की वजह एक है, लेकिन फर्क़ स़िर्फ इतना है कि गूजर अब अपने व्यवसाय में फायदा-नुकसान को छोड़कर सरकारी नौकरी के लिए आंदोलन कर रहे हैं.
1991 के उदारीकरण के बाद से सरकारी नीतियों का ध्यान किसानों और मज़दूरों की समस्याओं से दूर हटकर उद्योगपतियों, व्यापारियों और शहरी लोगों पर टिक गया. विकास का मापदंड बदल गया है. सरकार ने अपने दायित्व को ही नए ढंग से परिभाषित कर दिया है. सरकार मूलभूत ढांचे को बेहतर करती है तो औद्योगिक विकास एजेंडे पर होता है. विकास की परिभाषा विदेशी निवेश, जीडीपी और सेंसेक्स से तय की जाती है. जब भी सरकार बाज़ार को मुक्त करने की बात करती है या इस संदर्भ में कोई फैसले लेती है तो उसका सारा फायदा बड़े-बड़े उद्योगपति ले जाते हैं. शिक्षा में सुधार की बात होती है तो मामला विदेशी विश्वविद्यालयों को देश के शहरों में जगह देने पर रुक जाता है. गांवों में चलने वाली सरकारी योजना भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाती है. कृषि हो या उद्योग, विदेशी कंपनियों को सारी सुविधाएं और भारतीय बाज़ार उपलब्ध कराने को सरकार अपनी सफलता बताती है. ओबामा, बेन जियाबाओ या फिर सरकोजी आते हैं तो फैसले देश के बड़े-बड़े उद्योगपतियों के साथ मिल-बैठकर लिए जाते हैं. हद तो यह है कि अब दुनिया के बड़े-बड़े उद्योग घरानों को खुदरा बाज़ार में लाने की तैयारी हो गई है. वैसे भी अंबानी और बिरला पहले से ही खुदरा बाज़ार में स्थापित हो चुके हैं. सरकारी नीतियों से लगातार कृषि और उससे जुड़े उत्पादों पर आश्रित लोगों को नुकसान ही नुकसान हो रहा है.
सरकार की प्राथमिकता सा़फ है. उद्योगपतियों, व्यापारियों और शहर के लोगों का चेहरा देखकर सरकार योजना बनाती है. महंगाई पर हाय-तौबा तब मचती है, जब उन उत्पादों की कीमत बढ़ती है, जिनका रिश्ता शहर में रहने वाले लोगों से है. अ़खबार में महंगाई को लेकर खबर छपती है तो सरकार भी नीतियां बदल देती है. विपक्ष भी हंगामा करने लगता है. मीडिया भी एक्टिव हो जाता है. अ़खबार और टीवी वाले पेट्रोल की कीमत पर हाय-तौबा करते हैं तो यह बात समझ में भी आती है कि अ़खबार के पाठक और टीवी दर्शक शहरी होते हैं, लेकिन राजनीतिक दल इतने मूर्ख हैं कि मीडिया के साथ वे भी सुर में सुर मिलाकर हंगामा करने लगते हैं. इन राजनीतिक दलों को यह समझ में ही नहीं आता है कि वे जिनके लिए लड़ रहे हैं, वे तो वोट भी देने नहीं जाते. शहरों में तो वोटिंग 30 फीसदी होती है. लेकिन शहरी उच्च और मध्य वर्ग को खुश करने के लिए राजनीतिक दल अपनी शक्ति झोंक देते हैं. वहीं जब किसानों और ग्रामीणों की मुसीबतें बढ़ती हैं तो न मीडिया, न सरकार और न ही विपक्ष उनकी आवाज़ उठाता है. उन्हें अपनी लड़ाई खुद लड़नी पड़ती है. भारत के ग्रामीण बेसहारा हो चुके हैं. उनकी मुसीबतें बढ़ रही हैं, लेकिन उन्हें सुनने वाला कोई नहीं है. अब ऐसे में सरकारी नीतियों के सताए हुए किसान कहां जाएं? क्या करें? किससे अपनी गुहार लगाएं? सांसद उनकी आवाज़ नहीं उठाते. अधिकारियों तक उनकी आवाज़ नहीं पहुंचती. देश की विभिन्न संस्थाओं ने किसानों की परेशानियों को अनसुना करने की कसम खा रखी है. ऐसी सोई हुई व्यवस्था तक अपनी आवाज़ पहुंचाने और उसे जगाने के लिए आंदोलन के अलावा और क्या रास्ता है. यही वजह है कि गूजर आंदोलन कर रहे हैं. यही वजह है, जब किसानों की ज़मीन हड़पी जाती है तो उन्हें प्रदर्शन करना पड़ता है. यह प्रदर्शन कभी-कभी हिंसक रूप भी अख्तियार कर लेता है. जहां-जहां किसानों को नुक़सान होता है, वहां वे आंदोलन करते हैं. देश चलाने वाली सारी संस्थाओं को इन सवालों पर ग़ौर करना होगा, हल निकालना होगा.
गूजर आंदोलन को अगर स़िर्फ जातीय व आरक्षण के चश्मे से देखा गया तो भयंकर भूल हो जाएगी. आज गूजर आंदोलन कर रहे हैं, कल दूसरे किसान आंदोलन करेंगे. आज वे रेल और सड़क जाम कर रहे हैं, कल हथियार भी उठा सकते हैं. अगर ऐसा हो गया तो सरकारी तंत्र के पास उनसे लड़ने का कोई हथियार नहीं बचेगा. यह देश चलाने लायक नहीं रह पाएगा
मोहित तोमर

विमुक्त जाति आरक्षण को लेकर गुर्जर नेताओं ने की केंद्रीय मंत्री से चर्चा

नई दिल्ली| विमुक्त जाति आरक्षण पर चर्चा के लिए केंद्रीय सामाजिक अधिकारिता मंत्री श्री कृष्णपाल जी गुर्जर ने गुर्जर यूनिटी फाउंडेशन के राष्ट्रीय संयोजक गुर्जर शेषराज सिंह जी पंवार, केंद्रीय खादी बोर्ड भारत सरकार के पूर्व चेयरमैन एवं अखिल भारतीय गुर्जर महासभा के कार्यकारी राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. यशवीर सिंह जी चौहान एवं सामाजिक कार्यकर्ता श्री मोहित जी तोमर को आमंत्रित किया गया।केन्द्र सरकार के सचिव मीणा जी भी चर्चा मे शामिल थे| डा. यशवीर सिंह जी द्वारा एतिहासिक पृष्ठ भूमि मंत्री जी के समक्ष रखी गई और लाकुर कमेटी और रेनके आयोग की संस्तुतियाँ लागू करने की माँग की गई| शेषराज सिंह जी पंवार और मोहित जी तोमर के द्वारा शासनादेश मे संसोधन और आर्थिक शैक्षिक सुविधाएँ बहाल करने का पक्ष रखा गया और बार बार की जा रही ग़लती की बात रखी गई। शीघ्र उत्तरप्रदेश सरकार के अधिकारियों को संसद अधिवेशन के बाद बुलाने का निर्णय लिया गया

पर्यावरण संरक्षण के क्षैत्र में समर्पित एक सामाजिक यायावर.....

प्रोफ़ेसर पिता का पुत्र होने के बावजूद मेरा जन्म गांव में हुआ | बचपन गांव में बीता हायर सेकेंडरी तक की शिक्षा ग्रामीण परिवेश में ही संपन्न हुई | हालांकि मेरा गांव एक विशाल मैदान के बीच में स्थित है | जिसके चारों ओर विंध्याचल की ऊंची नीची- पर्वत श्रेणियां फैली हुई है, यह पर्वत श्रेणियां वनाच्छादित थी | हालांकि अब भी है पर अब वह बात नहीं | गांव के चारों ओर आम के सघन बगीचे थे | जिनमें विशालकाय आम के दरख्त थे इसके अलावा पीपल, नीम, बरगद, करंज, इमली आदि के वृक्ष भी थे | गांव के बाजू में बहती नदी सदानीरा थी, जिसम 10 -15 फीट की गहराई तक पानी भरा रहता था | नदी के किनारे अर्जुन और गूलर के वृक्षों से ढके थे | कुएं पूरे वर्ष पर्याप्त पानी देते थे  | गर्मी के मौसम में तापमान 42 डिग्री से ज्यादा नहीं हुआ करता था, रात के समय छत पर रजाई ओढ़ कर ही सोना पड़ता था |

               समय बदला सिंचाई के साधनों के व्यापक प्रचार-प्रसार के कारण, बोरवेल के कारण, गिरते भूजल स्तर एवं नदी के पानी के अनियंत्रित दोहन से लगभग 20 वर्ष पहले नदी सुख गई |

                 बचपन में पेड़ पौधे लगाने का शौक मुझे माता- पिता एवं दादा से मिला माताजी घर की क्यारियों में फूलों के पौधे लगाया करती थी | पिताजी शहर आने- जाने के सिलसिले में घर पर विभिन्न प्रजातियां के पौधे लाया करते थे |  दादाजी आम, जामुन, नीम, करंज, इमली, सागौन, जामुन आदि के बीज संग्रह करते थे | जिन्हें वो कच्चे रास्तों और नदी के किनारों पर लगा देते थे | आज भी उनके लगाए सैकड़ों पेड़ शान से खड़े हुए हैं |

             मैं बचपन से ही अपने स्तर पर अपनी निजी कृषि भूमि पर पेड़ पौधे लगाता रहा | पर    व्यवस्थित रुप से निजी/ सार्वजनिक भूमि पर वृक्षारोपण करने /करवाने का सिलसिला मैंने वर्ष 2005 से प्रारंभ किया | अपने घर में भी निजी साधनों से एक छोटी नर्सरी तैयार कर प्रतिवर्ष कम से कम 2000 पौधे लगाने/बांटने का सिलसिला प्रारंभ किया | गांव की प्रचलित परंपरा के अनुसार सर्वप्रथम ग्रामीणों ने उपहास किया | विरोध किया और यहां तक कि मेरे लगाए पेड़ पौधों का नुकसान भी किया | गांव के मंदिर की भूमि पर कब्जा करने वाले एक परिवार के साथ मेरे वृक्षारोपण को लेकर कोर्ट में केस तक चला.... पर कुछ सहयोगियों के साथ मेरा कारवां बढ़ता ही गया साथ में मेरा समर्थन भी ! आज तक में 10000 से भी ज्यादा वृक्ष लगा चुका हूं | गांव फिर से हरा-भरा हो गया है , नदी में पानी अब भी नहीं रहता पर नदी और सभी नालों के किनारे आज हरे भरे हैं |

    अब तमन्ना यह है कि नदी में वर्ष भर पानी रहे ....नदी बहती रहे.....
मेरा अभियान आज भी जारी है | आइए हम सब मिलकर हरा भरा भारत बनाएं | क्या इस अभियान में आप मेरा साथ देंगे..??
          

चौधरी राजेश मोहन (एड•)

मो•- 7773880410

ग्राम- छिंदली , पोस्ट बिजौरा तहसील देवरी जिला सागर (म•प्र)

रविवार, 30 जुलाई 2017

दो सगे भाई जिन्होंने एक साथ वीर चक्र प्राप्त कर इतिहास रचा..|

दो सगे भाई जिन्होंने एक साथ वीर चक्र प्राप्त कर इतिहास रचा..!!

1971 के हिन्द-पाक युद्ध में वायु सेना में दो सगे भाई विंग कमान्डर चरणजीत सिंह और स्क्वार्डन लीडर जसजीत सिंह ने अपने अदम्य साहस और वीरता प्रदर्शन से एक साथ वीर चक्र प्राप्त किया। देश में इसके पहले एवं इसके बाद अब तक ऐसे इतिहास की मिसाल नहीं मिलती।

ये दोनों सगे भाई इसी युद्ध (1971) में महावीर चक्र प्राप्त करने वाले 'बॉर्डर' फिल्म के केन्द्रीय पात्र ब्रिगेडियर कुलदीप सिंह चांदपुरी के कुटुंब से हैं और गुर्जर समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति स्व. सरदार साहब सादार संत सिंह मीलू के सुपुत्र हैं। तत्कालीन अखबारों के लिए यह इतिहास रचना मुख्य खबर थी। डेली न्यूज दी हिन्दुस्तान टाईम्स के मुख्य प्रष्ठ पर इसका विवरण इस तरह से मिलता है:

Brothers Make History

In the annals of the Indian Armed Forces fighter pilots, Wing Commander Charanjit Singh and Squadron Leader Jasjit Singh have created a new chapter. This is the first time that two brothers have simultaneously been awarded the Vir Chakra for conspicuous acts of gallantry in the Dec.71 war.

The two brothers, however shrug it off as part of the game, "we come from a fighting family, we even fight among ourselves"

This is not the first time that Wg. Commander Charanjit Singh, the elder of the two brothers, has won an award for gallantry. He was decorated in 1965 for deep penetration into enemy territory. In 1971 he received the Vishisht Seva Medal (VSM) for distinguished service. He also fought in Congo war in 1961.

In the last war, Wg. Commander Charanjit Singh made at least 20 sorties in both the eastern and the western sectors and has been awarded the Vir Chakra during several successful missions.

Squadron Leader Jasjit Singh, who has received the Vir Chakra for destroying a number of tanks, guns and bunkers, admits that he is still trying to catch up with his brother 'who has fought more wars and is more decorated.' Squadron Leader Jasjit Singh, who was involved in the western sector in the ground attack fighter squadron led a number of sorties in the thick of the battle.

His wife, who is a doctor in the Air Force, also contributed in her way by tending the wounded soldiers in the hospitals.

अशोक चक्र विजेता लेफ्टिनेंट कर्नल डीसीएस प्रताप

श्री लेफ्टिनेंट कर्नल डाल चंद सिंह प्रताप का जन्म पीलवान गोत्र के गुर्जर परिवार में लालपुर गाँव, मेरठ, उत्तर प्रदेश के श्री लखपत सिंह जी के यहाँ 4 जुलाई 1925 को हुआ। मेरठ कॉलेज, मेरठ से आपने शिक्षा प्राप्त की। खेलकूद का शौक प्रारम्भ से ही था। सीधे सैनिक अफसर चुने जाने पर उन्होंने डिफेंस सर्विस स्टाफ कॉलेज से 1955-1956 में शिक्षा प्राप्त की। आपको 19 नवम्बर 1944 को कमीशन मिला था। 5 मई 1957 में नागा हिल पर मुठभेड़ में साहस प्रदर्शित करते हुए घायल हुए। 9 अप्रैल 1959 में राष्ट्रपति द्वारा अशोक चक्र दिया गया।

श्री लेफ्टिनेंट कर्नल डाल चंद सिंह प्रताप अशोक चक्र प्राप्त करने वाले पहले गुर्जर थे। सदा से जीवन में आशा, उत्साह, और साहस का अपूर्व सामंजस्य स्थापित करते हुए आपने वीरता की जो मिसाल कायम की वह देश भर के गुर्जरों के लिए गौरवपूर्ण है।

9 अप्रैल 1959 को सांय काल 4 बजे दरबार हाल अलंकरण समारोह, राष्ट्रपति भवन में श्री लेफ्टिनेंट कर्नल डाल चंद सिंह प्रताप, 5 गोरखा राईफल्स को राष्ट्रपति द्वारा सेना का महत्वपूर्ण सबसे बड़ा पदक - अशोक चक्र (द्वितीय श्रेणी) दिया गया। इस अवसर पर निम्न वाचन पढ़ा गया-

25 मई 1957 को नाग़ा पहाड़ियों के चिशिलिमी चेशोलिमी क्षेत्र में 5 गोरखा राईफल्स, मेजर डाल चंद सिंह प्रताप की कमान में संक्रिया में लगी हुई थी। इस कंपनी का करीब 100 उपद्रवियों से मुकाबला हुआ जो मशीनगनों और टौमी तथा स्टेन गनों और राईफल्स से सुसज्जित थे। रास्ते में पास ही ऊपर उठी हुई जमीन में वे लोग अच्छी तरह छिपे हुए थे और उन्होंने 20 गज के फासले से फायर करना शुरू किया। हल्की मशीनगन का एक विस्फोट मेजर प्रताप की दाहिनी जाँघ में लगा। आपने घावों की प्रवाह ना करते हुए हमला किया और उपद्रवी गनमैन को मार गिराया। ठीक उसी समय दूसरी हल्की मशीनगन से मेजर प्रताप पर बायीं ओर से फायर आरम्भ हुआ जो उनसे 30 गज के फासले पर थी। इस फायर से उनके चेहरे और सीने पर गोली लगी जिससे वे बुरी तरह घायल होकर गिर पड़े।

यद्यपि मेजर प्रताप इस प्रकार घायल हो चुके थे फिर भी उन्होंने अपनी पिछली प्लाटून को आदेश दिया कि वह एक तरफ से उपद्रवियों पर हमला करें। उनकी कंपनी ने उनकी वीरता और साहस से प्रेरणा लेते हुए इतने विश्वास के साथ उपद्रवियों पर हमला किया कि वे पीछे हटने पर मजबूर हुए। कंपनी के दो सिपाही हताहत हुए जिनमे से एक मेजर प्रताप स्वयं थे, जबकि कंपनी ने 10 उपद्रवियों को हताहत किया।

मेजर प्रताप का वीरतापूर्ण नेतृत्व और व्यक्तिगत साहस उनके जवानों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बना|