साम्राज्य--काबुलशाही, तुर्कीशाही, बौद्धशाही,हिन्दुशाही
वंश---- कुषाण वंश से सम्बन्धित खटाणा वंश ।
अधिकांश इतिहासकार कुषाण या हूण से ही बताते हैं।
राजधानी--- कपिशा व काबुल, पेशावर बाद में।
महाभारतकालीन गांधार राज्य जिसकी राजकुमारी गांधारी हस्तिनापुर नरेश धृतराष्ट्र की धर्मपत्नी थी व शकुनि जिसके षडयन्त्रो की देन महाभारत का युद्ध था, आधुनिक अफगानिस्तान के कांधार शहर का विस्तृत भाग था।
महाभारत में वर्णित कम्बोज भी यहीं कहीं निवास व शासन करते थे, अब कम्बोज पंजाब में रहते हैं।
महाभारत में वर्णित हूण भी हिमालय की पर्वत श्रंखलाओ के कश्मीर के ऊपर वाली घाटियो में रहते थे,जिसके दूसरी ओर चीनदेश था।
महभारत में वर्णित देवपुत्र ( तुषार या तुखार) भी देवभूमि जो कि अफगानिस्तान की पहाडियो में कहीं पडता था के निवासी थे,ये ही देवपुत्र कुषाण हैं।
ये तो हुई पौराणिक व वैदिककालीन बात अब बात करते हैं भारत के व्यवस्थित( होना तो अव्यवस्थित ही चाहिये) व जहाँ तहाँ से जुटाये गये लिखित इतिहास की जो विशेषत: सिकन्दर के आक्रमण के पहले से शुरू होता है। पुरू वंश के राजा पोरस सिकन्दर से लडते हैं व हारकर भी सिकन्दर के आगे बढने का हौसला ध्वस्त कर देते हैं। पुरु एक कबीला बताया जाता है जिसकी उत्पति मिथकीय व पौराणिक राजा पुरू से मानी जाती है । गुर्जर समुदाय के एक वंश पोरसवाल यानी पोसवाल अपने को इसी पोरस के वंशज बताते हैं ।
तरीके से तो भारतीय इतिहास यहीं से शुरू होता है ।
नन्द वंश को किनारे करके मौर्य अपना शासन अफगानिस्तान तक पहुँचा देते हैं। फिर अल्पकाल के लिये शुंग वंश आता है।
मौर्यो के पतन के बाद बैक्ट्रिया में शासन कर रहे कुषाण जो शको को हराकर हिन्दूकुश की पर्वत श्रंखलाओ में अपने को स्थापित कते हैं। कुषाण वंश का प्रतापी राजा कुजुल कुषाण राज्य को साम्राज्य में बदल देता है। बाद में विम व कनिष्क बंगाल की खाडियो तक कुषाण साम्राज्य फैला देते हैं।
कनिष्क भारतीय इतिहास का महान शासक माना जाता है।
कुषाणो के राजनैतिक पतन के बाद उन्हीं की एक शाखा आगे चलकर काबुलशाही राज्य की स्थापना करती है। कुषाणो की इस शाखा को खटाणा माना जाता है। गुर्जरो में कसाणा व खटाणा एक ही राजवंश के दो गौत्र माने जाते हैं ।
कुषाण शाहनुशाही यानी शाहो के शाह ( शाही) उपाधियो को धारण करते थे। उन्होने कभी हिन्दु धर्म को तो कभी बौद्ध धर्म को प्रश्रय दिया। साथ ही वे अपने प्राकृतिक धर्म यानी मिहिर ( मिहिरो) को भी पूजते रहे।
अब बात करते हैं काबुलशाही जिसे तुर्कीशाही, हिन्दुशाही व बौद्घ शाही नामो से भी जाना जाता है।
इस राजवंश का उदय पाँचवी सदी में होता है व ये काबुल व कपिशा को अपनी राजधानी बनाते हैं।
जहाँ इनका शासन था वहाँ आज भी इन्हें कनक यानी कनिष्क का वंशज माना जाता है। ये लोकश्रुति सदियो से चलती आ रही है । अफगानिस्तान के गुर्जर आज भी वहाँ पर काबुल के प्राचीन राजाओ के वंशज माने जाते हैं वहाँ पर। अफगानिस्तान, पाकिस्तान व भारत में बसने वाले गुर्जर समुदाय के खटाणे स्वयं को इसी शाही वंश से जोडते हैं। काबुल के आसपास के गुर्जर व खटाणा इस बात को आज भी स्वीकारते हैं।
यह शाही राजवंश कई सदियो तक चला व कई बार राजधानी बदली गयी। सदियो तक मुस्लिम आक्रमणो से जूझते हुए खुदको व साम्राज्य को बचाया व भारत के लिये एक दीवार का काम करते रहे जोकि उपगणस्थान यानी अफगानिस्तान में बनी रही।
पाँचवी सदी में अरब में इस्लाम के अस्तित्व मेंआते ही खलीफाओ ने इस्लामिक साम्राज्य को बढाना शुरू किया जो बीच में आया नेस्तनाबूत कर दिया।
मगर काबुलशाही के इन कनिष्क के वंशजो ने दो सौ सालो तक अरबो को धूल चटायी।
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