रविवार, 3 मई 2020

हां मैं गुर्जर हूँ

मैं शिव का चतुर्शूल, देवनारायण का भक्त हूँ 
कारसदेव का प्रिय, मोहनबाबा का स्नेह हूँ 
कुषाण भी मैं हूँ, हूँण भी, प्रतिहार भी हूँ मैं 
पृथ्वी हूँ, जोगराज हूँ, मैं ही पन्नाधाय भी
योद्धा प्रताप मैं ही हूँ,
57 की क्रांति का धनसिंह हूँ, कदम सिंह हूँ 
पथिक भी मै, लोह्पुरुष भी मैं, मैं ही राजेश भी 
71 की लड़ाई का चांदपुरी हूँ मैं 
देशभक्ति में रंगा कश्मीरी औरंगजेब हूँ मैं 
धूप में तपता किसान हूँ, बॉर्डर पर ठिठुरता जवान हूँ 
जो आगे बढ रहा वो विज्ञान हूँ मैं 
मैं हर गुर्जर का सम्मान हूँ, निशान हूँ मैं, पहचान हूँ मैं 
मैं गुर्जर हूँ 
निशान भी, पहचान भी 
मैं ही गुर्जर हूँ

महाज्ञानियों इतिहास को मत मिटाओ!

गुर्जर समाज के इतिहास को लेकर कुछ गिने-चुने लोग कुषाण और हूँण गुर्जरों के विषय में दुष्प्रचार करने की कोशिश कर रहे है | इस दुष्प्रचार के तहत उनकी साज़िश है की कुषाण और हूणों को विदेशी साबित कर दिया जाय| 
और वो चाहते है कि जो इतिहास दबा दिया गया वो दबा ही रहे|
कुषाण गुर्जर हिन्दू-कुश क्षेत्र से भारत में आये थे जोकि अखंडित भारत का क्षेत्र है| 
.
यहाँ कुछ प्रश्न उठते है जो कि इनसे पूछे जाने चाहिए | 
1. क्या ये लोग समझते है कि हिन्दू-कुश अखंड भारत का हिस्सा नहीं है?
2. क्या ये बताएँगे कि कौरवों कि माता किस क्षेत्र से थी ? 
3. क्या ये बताएँगे कि किस साज़िश के तहत ये लोग दबा लिए गए गुर्जर इतिहास को सामने नहीं आने देना चाहते ?

क्या है हिंदुकुश पर्वत का सच?

क्या है हिंदूकुश पर्वत का सच ?

हिन्दूकुश उत्तरी पाकिस्तान से मध्य अफगानिस्तान तक विस्तृत एक 800 किमी लंबी वाली पर्वत श्रृंखला है। यह पर्वतमाला हिमालय क्षेत्र के अंतर्गत आती है। हिन्दूकुश पर्वतमाला पामीर पर्वतों से जाकर जुड़ती हैं और हिमालय की एक उपशाखा मानी जाती हैं। पामीर का पठार, तिब्बत का पठार और भारत में मालवा का पठार धरती पर रहने लायक सबसे ऊंचे पठार माने जाते हैं। प्रारंभिक मनुष्य इसी पठार पर रहते थे। हिन्दूकुश पर्वत का पहले नाम पारियात्र पर्वत था। इसी से कालांतर में परिजात नाम पड़ गया । जिस प्रकार हमारे सिर पर केश अर्थात बाल हमारे शरीर का अंतिम सिरा होते हैं , वैसे ही भारतवर्षीय राज्य का अंतिम सिरा होने के कारण कभी इसको हिंदू केश के नाम से भी जाना गया । इसके अतिरिक्त एक मान्यता यह भी है कि यहाँ पर रामचंद्र जी के बेटे कुश ने तपस्या की थी और उनका ही यहाँ के निकटवर्ती क्षेत्रों पर आधिपत्य था , इसलिए इस पर्वतमाला के निकट रहने वाली कई जातियों का नाम कुश के ऊपर ही हो गया। 
सिकंदर ने जब इस क्षेत्र को अपने कब्जे में ले लिया तो इसका नाम यूनानी भाषा में 'कौकासोश इन्दिकौश' यानी 'भारतीय पर्वत' बुलाया जाने लगा। कुछ समय के पश्चात 'कौकासोश' शब्द गौण हो गया और 'इंदिकौश' का 'हिंदूकुश' बन गया । बाद में इनका नाम 'हिन्दूकुश', 'हिन्दू कुह' और 'कुह-ए-हिन्दू' पड़ा। 'कुह' या 'कोह' का मतलब फारसी में 'पहाड़' होता है।
हिन्दुकुश पर्वत एवं 'ऑक्सस' के मध्य में स्थित 'बैक्ट्रिया' अत्यन्त ही उपजाऊ प्रदेश था। इसके उपजाऊपन के कारण ही 'स्ट्रैबो' ने इसे 'अरियाना गौरव' कहा। इस नामकरण से भी स्पष्ट है कि इसे आर्यों का गौरव भी कहा गया । 
सिकन्दर की मृत्यु के पश्चात् बैक्ट्रिया पर सेल्युकस का आधिपत्य रहा। सेल्यूकस वंश के 'आन्तियोकस तृतीय' ने 206 ईपू में भारत के विरूद्ध एक अभियान का नेतृत्व किया। यह अभियान हिन्दुकुश पर्वत को पार कर काबुल घाटी के एक शासक सुभगसेन के विरुद्ध किया गया था। सुभगसेन को पॉलिबियस ने 'भारतीयों का राजा' कहा। 
इसके बाद डेमेट्रियस और मीनेंडर (मिलिंद) नामक यवन शासकों ने इस पर्वत माला से आकर हमले किए। इस के बाद पार्थियन (पहलव), शक (सीथियन), कुषाण और हूण ने अफगानिस्तान (आर्यना) पर हमले किए। फिर अरब और तुर्की के खलिफाओं ने हमले किए। सिकन्दर के बाद डेमेट्रियस ने एक बड़ी सेना के साथ लगभग 183 ई.पू. में हिन्दुकुश पर्वत को पार कर सिंध और पंजाब पर अधिकार कर लिया। तब योग के महान ऋषि पतञ्जलि काबुल क्षेत्र में रहते थे। उन्होंने अपनी पुस्तक  महाभाष्यण 'गार्गी संहिता' एवं मालविकाग्निमित्रम् में इसका उल्लेख किया है।
 यहां से गुजरने वाले लोग इसे हिन्दू क्षेत्र कहते थे इसलिए इस पर्वतमाला का नाम हिन्दू क्षेत्र पड़ गया। काराकोरम और हिन्दूकुश के बीच हिन्दू राज पर्वतमाला है, जहां हिन्दू ऋषियों के आश्रम और राजाओं के सैन्य शिविर थे। यहां गुरु लोग बाहर से आने वाले लोगों को ज्ञान देते थे।
बहुत से तुर्की, चीनी और अरब के लोग जो यहां आते-जाते थे वे क्षेत्र शब्द नहीं बोल पाते थे। क्षेत्र को छेत्र कहते थे। क+श+त्र उक्त तीन शब्द से मिलकर बना क्षे‍त्र इसलिए कुछ लोग हिन्दू कशेत्र भी कहते थे। इस तरह यह क्षे‍त्र शब्द बोलने वाले लोगों के कारण बिगड़ता गया। क्ष और त्र बोलना आम लोगों के लिए थोड़ा कठिन था इसलिए इसमें से त्र भी हटा दिया गया और रह गया हिन्दू केश।
सन् 1333 ईस्वीं में इब्नबतूता के अनुसार हिन्दुकुश का मतलब 'मारने वाला' था। इसका अर्थ था कि यहाँ से गुजरने वाले लोगों में से अधिकतर ठंड और अन्य प्राकृतिक आपदाओं के कारण मर जाते थे। एक मान्यता यह भी है कि उत्तरी भारतीय उपमहाद्वीप पर अरबों-तुर्कों के कब्जे के बाद हिन्दुओं को गुलाम बनाकर इन पर्वतों से ले जाया जाता था और उनमें से बहुत से हिन्दू यहां बर्फ में मर जाया करते थे। इस तरह की बातें करने वालों ने खुदकुशी से इस शब्द का अर्थ लिया। यहां हिन्दू खुदकुशी कर लेते थे इसलिए पहले हिन्दूकुशी और फिर हिन्दूकुश हो गया।
भारत पर अरबों-तुर्कों के कब्जे के लिए हिन्दूकुश का रास्ता अहम था। मुगलों ने अफगानिस्तान को हिन्दूविहीन बनाने के लिए यहाँ कत्लेआम किया। हिन्दूकुश पर आक्रांताओं ने लाखों हिन्दुओं को गुलाम बनाकर मरने के लिए भेजा।
अरब, बगदाद, समरकंद जैसे इलाकों में हिन्दुओं को बेचने के लिए मंडियां लगाईं। आक्रांताओं की यातनाओं से वही हिन्दु बचे जिन्होंने इस्लाम धर्म अपनाया था। तैमूर लंग ने 1 लाख गुलामों को हिन्दूकुश की बर्फीली चोटियों पर छोड़ दिया था।
हिन्दूकुश पर्वत श्रंखला बेहद हिन्दुओं की पहचान से जुड़ी रही है। इसके सहारे ही तमाम आक्रांताओं ने हिन्दुओं के नाश की साजिश रची। यानी हिन्दुओं के इतिहास के बारे में अगर गहराई से देखें तो आक्रांताओं के पहले जो परंपराएं हिन्दुकुश के इस पार थीं वो हिन्दू थीं और आक्रांताओं ने यहां पर हिन्दू को खत्म करने के लिए काम किया।
इन सबसे अलग एक मान्यता राहुल सांकृत्यायन जी के ' मध्य एशिया का इतिहास' खंड - 1 , पृष्ठ 175 के आधार पर डॉ पी.डी. गुर्जर 'गुर्जर वंश का इतिहास नामक' अपनी पुस्तक में प्रतिपादित करते हैं । जिसमें वह लिखते हैं कि बाइबल के अनुसार ईरान से जुड़ा हुआ पूर्वी भाग 'कुश' है । यह सिद्ध करता है कि आधुनिक अफगानिस्तान बाईबिल में 'कुश' के नाम से जाना गया है । बाद में सिन्ध की पूरी घाटी को पार्शियन्स ने 'हिंदू' कहा है । पर्शियन भाषा प्राकृत है जो संस्कृत की उपशाखा है । पर्शियन भाषा में 'स' का :ह' हो जाता है जैसे 'सप्त' का 'हप्त' , 'सिन्ध' का 'हिंद' , 'सप्ताह' का 'हफ्ता' , 'सहस्र' का 'हजार' हो गया है । 
सिंधु घाटी का पूरा पूर्वी हिस्सा 'हिंद' के नाम से जाना गया है । अरबी लोगों ने इस क्षेत्र को 'अल - उल -हिंद' कहा है । किंतु पार्शियन्स ने विशेष रूप से मध्य एशिया के लोगों ने इस क्षेत्र के मूल निवासियों को 'हिंदू' कहा है । इसलिए उसको 'हिंदूकुश' कहा है। जिसे आज भी इसी नाम से हम जानते हैं ।
कुशान ( कुषाण ) हिंदू थे , जो अपने नेता कनिष्क के नेतृत्व में पाटलिपुत्र पहुंचे । इतिहास में यह विचित्रता है कि जब पेशावर का हिंदू जो आर्यावर्त में ही है पटना को जीतता है तो विदेशी कहलाता है , लेकिन जब पटना का एक हिंदू चंद्रगुप्त द्वितीय पेशावर को जीतता है तो वह विदेशी नहीं कहलाता। इसलिए ध्यान में रखना चाहिए कि पश्चिम में पेशावर और पूर्व में पटना आर्यावर्त के ही क्षेत्र थे ।
कनिष्क एक हिंदू नाम है । अब यदि कनिष्क भारी कपड़े व जूते पहने हुए हैं तो समझना चाहिए कि 'हिंदू कुश' और कैलाश की बर्फीली घाटी में पटना वाली धोती नहीं पहन सकते हैं । संक्षेप में यह है कि कुषाण ( कसाना ) गुर्जरों का गोत्र उपजाति है । जिनका मातृ परिवार पेशावर में था , उनका परिवार देवपुत्र आर्य कहलाता था । (जर्नल ऑफ रॉयल एशियाटिक सोसायटी , पृष्ठ 402 403)
डॉक्टर पी.डी.गुर्जर के इस संकेत को भी समझने की आवश्यकता है। हमारा विचार है कि राहुल सांकृत्यायन जी जिस बात की ओर संकेत कर रहे हैं वह कहीं अधिक प्राचीन और तर्कसंगत है। बाकी सारे नाम देश , काल ,परिस्थिति के अनुसार जुड़ते रहे। यद्यपि मुगलों और तुर्कों के अत्याचारों के ऐतिहासिक सच को भी उपेक्षित नहीं कह सकता।पर उन्होंने तो ऐसे अत्याचार भारतवर्ष के अन्य हिस्सों में भी तो किए थे , उनको कभी हिंदू कुश नहीं कहा गया । स्पष्ट है कि हिंदू कुश नाम तो पहले से ही था । हिन्दू नरसंहार और हिंदूकुश समानार्थक से दिखने के कारण उनके नरसंहारों के साथ भी इसे जोड़कर देखा जाने लगा।
चित्र में हिंदू कुश पर्वत ऐसा ही लग रहा है जैसे किसी महिला के केश बिखरे हुए हैं।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
अखिल भारत हिन्दू महासभा

गुर्जर वंश का गौरवशाली इतिहास लिख रहे डॉ राकेश कुमार आर्य

गुर्जर वंश का गौरवशाली इतिहास लिख रहे 50 पुस्तकों के लेखक इतिहासकार डॉ राकेश कुमार आर्य का संक्षिप्त परिचय

चार दर्जन पुस्तकों के लेखक डॉ राकेश कुमार आर्य का जन्म 17 जुलाई 1967 को ग्राम महावड़ जनपद गौतमबुद्ध नगर उत्तर प्रदेश में एक आर्य समाजी गुर्जर परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम श्री राजेंद्रसिंह आर्य और माता का नाम श्रीमती सत्यवती आर्या है । विधि व्यवसायी होने के साथ-साथ श्री आर्य एक प्रखर वक्ता भी हैं । डॉक्टर आर्य के ज्येष्ठ भ्राताश्री प्रोफेसर विजेंद्र सिंह आर्य एक अच्छे वक्ता और लेखक हैं , जबकि उनके दूसरे ज्येष्ठ भ्राताश्री मेजर वीर सिंह आर्य सेना में रहकर देश की उत्कृष्ट सेवाएं कर इस समय सेवानिवृत्त हो चुके हैं । जबकि तीसरे ज्येष्ठ भ्राता श्री देवेंद्र सिंह आर्य वरिष्ठ अधिवक्ता हैं । जो कि बार काउंसिल उत्तर प्रदेश के अनुशासन समिति के सदस्य भी रह चुके हैं , साथ में ही पश्चिम उत्तर प्रदेश विकास पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और 'उगता भारत' समाचार पत्र के चेयरमैन भी हैं ।
डॉ आर्य की एक बहिन हैं । जिनका नाम श्रीमती सुमन आर्य बंसल हैं और एक अच्छी समाज सेविका हैं ।
डॉ आर्य ने बी ए , एलएलबी तक की शिक्षा प्राप्त की है । डॉ आर्य का विवाह 17 जून 1991 को श्रीमती ऋचा आर्या के साथ हुआ । उनकी तीन बेटियां श्रुति श्वेता , श्रेया और एक बेटा अमन आर्य है।
डॉ आर्य की पहली पुस्तक " भारतीय छात्र धर्म और अहिंसा" व " भारतीय संस्कृति में साम्यवाद के मूल तत्व " 1999 में प्रकाशित हुई ,थीं । तब से उन्होंने भारतीय धर्म संस्कृति और इतिहास के क्षेत्र में एक से बढ़कर एक शोध ग्रंथ देकर राष्ट्र की अमूल्य सेवा की है । अभी तक उनकी 50 पुस्तकें छप चुकी हैं ।
डॉ आर्य विधि व्यवसायी हैं और 17 जुलाई 2010 से राष्ट्रवादी समाचार पत्र " उगता भारत " का सफल संपादन कर रहे हैं । यह पत्र देश के विभिन्न राज्यों में पहुंचता है और देश की युवा पीढ़ी का होश मार्गदर्शन करता है ।
डॉक्टर आर्य की प्रतिभा को देखते हुए ही उन्हें अखिल भारत हिंदू महासभा का वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और राष्ट्रीय प्रेस महासंघ का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया । इसके साथ-साथ श्री आर्य राष्ट्रवादी संगठनों और लोगों की ओर से तैयार किए गए " राष्ट्रीय इतिहास पुनर्लेखन समिति " के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं ।
श्री आर्य को उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह द्वारा विशेष रूप से 22 जुलाई 2015 को राजभवन राजस्थान में सम्मानित किया गया । इसके अतिरिक्त केंद्र सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से 12 मार्च 2019 को केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा उनकी शोध कृति " भारत के 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास " को वर्ष 2017 के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया है । इसके अतिरिक्त अन्य अनेकों सामाजिक संगठनों के द्वारा भी श्री आर्य को विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है ।
इतिहास संबंधी शोधपूर्ण कार्य पर उन्हें अंतर्राष्ट्रीय आर्य विद्यापीठ के अध्यक्ष प्रोफेसर (डॉ ) श्यामसिंह शशि और संस्कृत में प्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता प्रोफेसर डॉक्टर सत्यव्रत शास्त्री , प्रभृति प्रख्यात विद्वानों के द्वारा डॉक्ट्रेट की मानद उपाधि विगत 17 जुलाई 2019 को उनके 53 वें जन्म दिवस के अवसर पर दिल्ली में होटल अमलतास इंटरनेशनल में प्रदान की गई।
अभी तक लगभग चार दर्जन से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके डॉ आर्य को शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार की ओर से इतिहास के क्षेत्र में किए गए उत्कृष्ट लेखन के लिए भी भारत के शिक्षा मंत्री श्री रमेश पोखरियाल निशंक द्वारा सम्मानित किया जा रहा है ।
श्री आर्य को उनके उत्कृष्ट लेखन कार्य के लिए विभिन्न विश्वविद्यालयों व सामाजिक संस्थाओं से भी सम्मानित किया गया है । मेरठ के चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय सहित कई विश्वविद्यालयों में उनके लेक्चर विजिटर प्रोफेसर के रूप में आयोजित किए गए हैं ।
वर्तमान में डॉ आर्य 'गुर्जर वंश का गौरवशाली इतिहास' लिख रहे हैं । जिसमें वह इतिहास के अनछुए पहलुओं और तथ्यों को प्रकट करने का सराहनीय कार्य कर रहे हैं। डॉक्टर आर्य का कहना है कि उन्हें इतिहास संबंधी प्रतिभा अपने पिताश्री महाशय राजेंद्र सिंह आर्य जी से विरासत में मिली जो स्वयं इतिहास के मर्मज्ञ विद्वान थे । जबकि माताश्री श्रीमती सत्यवती आर्या आर्य समाज की विचारधारा से प्रेरित धर्मशील महिला थीं । जिन्होंने सदा उन्हें पिता के दिये विचारों को आगे बढ़ाने की प्रेरणा दी।

निवास : सी ई 121 , अंसल गोल्फ लिंक , तिलपता चौक , ग्रेटर नोएडा, जनपद गौतमबुध नगर , उत्तर प्रदेश ।
चलभाष 9911169917