भारतीय इतिहास लेखन में सभ्रांतवादी दृष्टीकोण
डा. सुशील भाटी
भारत के संविधान में प्रजातान्त्रिक राजव्यवस्था का प्रावधान है, इस व्यवस्था को देश में लागू हुए लगभग छः दशक बीत चुके है, परन्तु भारतीय समाज में प्रजातान्त्रिक सोच पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो सकी। प्रजातान्त्रिक समाज आम जनता के निर्णय लेने की क्षमता में विश्वास करता है, ऐसे समाजों मे सभी महत्वपूर्ण निर्णय आम जनता में सहमति के आधार पर किये जाते है। किसी भी कानून के निर्माण के लिए समाज में एक जनमत तैयार किया जाता है| बहुत से देशों में सीधे जनमत संग्रह कराकर देश हित के निर्णय लिए जाते है। आजादी के 63 वर्ष पश्चात् भी भारत का सभ्रांत वर्ग देश की आम जनता को लोकतान्त्रिक व्यवस्था के योग्य नहीं मानता, यह समझता है कि अनपढ़ अर्धशिक्षित, गरीब और ग्रामीण जनता को समाज और देश के गम्भीर मसलों की कोई समझ नहीं है, उनके निर्णय धन के लोभ और बाहुबल के आंतक से आसानी से प्रभावित हो जाते है? अतः लोकतन्त्र का इस देश में कोई विशेष अर्थ नहीं है।
भारतीय समाज की इस अलोकतान्त्रिक सोच का भारतीय इतिहास लेखन पर भी व्यापक प्रभाव दिखाई पड़ता है। भारतीय इतिहासकारों का एक बड़ा तबका भारतीय सभ्यता के विकास एवं प्रगति में सभ्रांत वर्ग की भूमिका को रेखाकिंत करता नजर आता है, इनके इतिहास लेखन में बडे नेताओं, बड़े परिवारों और राजवंशो को ही मुख्य स्थान दिया जाता है, इसमें आम जनता की भूमिका का कोई खास जिक्र-माजरा नहीं होता। सामान्य जन को विवेकहीन एवं सिर्फ अनुसरण करने वाला पिछलग्गू मान लिया जाता है।
वस्तुतः भारतीय सभ्यता की शास्त्रीय परम्पराओं में से अधिकांश, सभ्रांत वर्ग द्वारा मजदूरों,किसानों, ग्रामीणों की विभिन्न आंचलिक परम्पराओं को व्यवस्थित एवं संगठित कर विकसित की गई है। जैसे कि, अमेरिकी मानव शास्त्री मैकिम मैरियट ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किशनगढ़ी गांव में, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक दृष्टिकोण से किये गये, अपने अध्ययन में सिद्व किया है कि भारत में लक्ष्मी पूजा एवं रक्षाबन्धन पर्व की परम्पराएं, लौकिक परम्पराओं के सर्वभौमिकरण का परिणाम है। भारतीय सभ्यता की प्रगति और आजादी की लड़ाई में भी आम जनता की एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में आम जनता की एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है, इसकी शुरूआत करने वाले मंगल पाण्डे (29 मार्च, बैरकपुर) एवं धन सिंह गुर्जर (10 मई,मेरठ) क्रमशः सेना और पुलिस में साधारण सिपाही थे और ग्रामीण पृष्ठभूमि के किसान परिवारों से सम्बन्धित थे। हालांकि, धन सिंह उस समय मेरठ की सदर कोतवाली में कार्यवाहक कोतवाल थे। दिल्ली की आम जनता के द्वारा उसके भाईयों के मुकाबले रजिया सुल्तान के समर्थन की बात हो या तैमूर के आक्रमण के समय हरिद्वार के निकट उसका विरोध करने का, किसानों की सर्वखाप पंचायत के निर्णय का प्रसंग हो, भारत की आम जनता ने अनेक अवसरों पर अपने विवेक का प्रयोग कर अहम् भूमिका अदा की है।
वास्तव में, भारतीय इतिहास लेखन के इस सभ्रांतवादी दृष्टिकोण ने भारत में अलोकतान्त्रिक सोच का पोषण किया है। यदि भारत को सही अर्थो में लोकतान्त्रिक देश बनाना है, यदि भारत को कुछ लोगों का गौरवशाली राष्ट्र की बजाय सौ करोड लोगों का परिपक्व, सक्षम और सशक्त राष्ट्र बनाना है तो हमें समाज में आम जन की योग्यता और क्षमता में विश्वास जगाना होगा। हमें आम जन का इतिहास भी लिखना होगा।
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